झारखंड बिहार से अलग क्यों हुआ?

 झारखंड बिहार से अलग क्यों हुआ?


 भौगोलिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक-तीनों दृष्टि से देखा जाए तो झारखंड हमेशा से ही बिहार से पृथक् एक परिचय लेकर रहा।

भौगोलिक झारखण्ड वन और पठारी इलाका था। यहां अयोध्या पहाड़, सारंडा सिंहभूम श्रृंखला, लातेहार श्रृंखला, चांडिल-गम्हरिया श्रृंखला जैसे पहाड़ी श्रृंखलाएं हैं। और वनांचल भी बहुतायत हैं।

ऐतिहासिक

यहां पर 32 जनजातियां मूलवासी हैं जिनमें संथाल, उरांव, मुंडा, हो, महली, भूमिज, चेरो, खड़िया, बिरहोर, लोहरा, करमाली बस कुछ हैं।

यहां के मूलवासियों की जीवनशैली और मान्यताएं बिहार के मूलवासियों से अलग हैं। ये सरना धर्म को मानते हैं जो प्रकृति पूजन पर आधारित है।

1845 के आसपास ईसाई मिशनरी झारखण्ड में आने लगे और कई गरीब आदिवासी धर्म परिवर्तन करने लगे।

यहां पर मधुबनी, नालंदा, मगध का प्रभाव नागवंशी और चेरो राजवंश की अपेक्षा कम रहा।

सांस्कृतिक

पृष्ठभूमी और धर्म अलग होने के कारण रीति-रिवाज , मान्यताएं , समाज के नियम ,पर्व, खान -पान भी यहाँ बिहार से भिन्न था |

यहाँ सरहुल, सोहराय, माघे पर्व जैसे प्रकृति से जुड़े पर्वों को मनाया जाता था|

संजातीय तरीके से भी देखा जाए तो बिहार और झारखण्ड लोगोंं के पूर्वज अलग अलग जड़ों से थे -एक इंडॉ-आर्यन और दूसरे ऑस्ट्रलोएड[1] |

तीनों दृष्टिकोण से झारखण्ड और छोटनागपुर पठार एक ऐसी जगह है जहाँ तीन भिन्न धाराओं का संगम हैं - छत्तीसगढ़, बंगाल, ओडिशा |

इतिहास और कारण

एक अलग राज्य होने के लिये झारखण्ड आंदोलन 1920 से ही हो रहा था |

क्षेत्रीय आंदोलन के शुरुआती चरणों को मुख्य रूप से व्यापक बिहार में कृषि शासक वर्ग और दक्षिण बिहार में औद्योगिक पूंजी के हितों के बीच टकराव के रूप में समझाया जा सकता है।

कभी 1793 में स्थायी बंदोबस्त (permanent settlement) के कानूनों की शुरूआत और उसके बाद 1859 का बिक्री और किराया कानून (sale and rent law) के बाद पूरे झारखंड क्षेत्र में, विशेष रूप से छोटानागपुर में- बाहरी लोगों के हाथों में आदिवासी जमीन का बड़े पैमाने पर हस्तांतरण, हुआ ।

ज़मींदारों और अंग्रेज़ों को तो बस रेवेन्यू से मतलब था - पर आदिवासियों का घर और आजिविका का स्रोत चला गया |

बाद में भारतीय वन अधिनियम के कारण आदिवासियों के वन से उत्पाद इकटठा करने पर भी रोक लगी | इस से उनकी परेशानी और बढ़ी |

स्थानांतरण की प्रक्रिया से आदिवासियों और गैर-आदिवासी बाहरी लोगों के बीच संघर्ष बहुत टकराव हुआ | दोनों शांतिपूर्ण और सशस्त्र । संथाल का विद्रोह और बिरसाई आन्दोलन इसकी उपज थे।

1903 के छोटानागपुर टेंनेंसी एक्ट (संशोधन) और संथाल परगना सेटल्मेंट रेप्यूटेशन के बाद यह कम हुआ पर फिर झारखंड में खनन और धातु उद्योग और संयंत्र आने लगे - जैसे टिस्को, हिंडाल्को , राष्ट्रीय कोयला विकास परिषद |

इन उद्योगों के कारण विस्थापितों को प्र्याप्त खामियाजा ठीक से मिला नहीं - ऊपर से इन से जो भी राजस्व मिलता था -वो स्वतंत्रता के पहले और अब तक -सब केंद्र को जाता रहा अथवा निजी उद्योग के मालिक के पास। खनिज का अपरिमित भंडार होने पर भी झारखण्ड गरीब रह गया।

नए उद्योग और बिजली परियोजनाएं मुख्य रूप से पंच-वर्षीय योजना के दौरान शुरू हुईं | नए प्रतिष्ठानों को विशिष्ट कर्मियों की आवश्यकता थी जो बड़ी संख्या में आए बाहरी लोगों द्वारा भरे गए | जनसंख्या वृद्धि के दृष्टिकोण से देश में यह सबसे तेजी से बढ़ते क्षेत्रों में आ गया ।

इसका मुख्य कारण बंगाल और आसपास के क्षेत्रों से गैर-आदिवासी आबादी के बड़े पैमाने पर आवागमन था।

दूसरी तरफ आदिवासियों को पंजाब, असम जैसे दूर स्थानों में छोटी नौकरी की तलाश में रहने के लिए भटकना पड़ा | बाहरी लोगोंऔर आदिवासियों का 40:60 का अनुपात चार दशकों में 70:30 हो गया । यह वृद्धि अभी भी चल रही है और सबसे ज्यादा प्रभावित तबका आदिवासी है।

यद्यपि सरकार ने आदिवासियों के लिए आरक्षण प्रदान किया पर शिक्षा और संसाधनोंं के अभाव के कारण आरक्षण मिलने पर भी आदिवासी नौकरी में लाभ नहीं ले पाये -क्योंकि न्यूनतम योग्यता ही उन के पास नहीं थी -कई दशकों तक इन उद्योगों में वे सबसे निम्नतम स्थानोंं पर ही नियुक्त हो पाये |

इन सब कारणों से अलग राज्य बनना आवश्यक लगने लगा | 1920 में शुरु हुआ आंदोलन 200 में सफल हुआ जब केंद्र ने पृथ्स्क राज्य की अनुमति दी | 1938 में छोटा नागपुर आदिवासी महासभा बनी और 1950 में झारखण्ड पार्टी की स्थापना हुई जब ये महासभा -यूनाइटेड झारखंड पार्टी से जुड़ी | इस पार्टी का श्रेय जय पाल सिन्ह को दिया गया |

1952 के आम चुनावों में पार्टी ने 33 सीटें जीतीं। उन्होंने 34 विधायकों द्वारा हस्ताक्षर किये गए ज्ञापन को राज्य पुनर्गठन आयोग के अध्यक्ष फ़ैज़ल अली को सौंप दिया जिसमें उन्होंने झारखंड राज्य की मांग की ,जिस्के अंतर्गत क्षेत्र थे छोटानागपुर और संथाल परगना , बिहार के गया, शाहाबाद और भागलपुर जिले, उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर,मध्य प्रदेश में रायगढ़ और सरगुजा के हिस्से और ओडीशा में सुंदरगढ़, केओंझार और मयूरभंज।

आयोग ने हालांकि अपनी रिपोर्ट में, उनकी अलग राज्य की मांग को खारिज कर दिया निम्नलिखित बिंदु देकर ।

(i) हालांकि झारखंड पार्टी को लोगों का पर्याप्त फैसला मिला, लेकिन उन्हें स्पष्ट बहुमत नहीं मिला

झारखंड क्षेत्र के भीतर और विधानसभा सदस्य बहुमत के दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे।


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(ii) झारखंड के बाहर के जनमत ने विभाजन का पक्ष नहीं लिया और यहाँ तक कि झारखंड के भीतर भी अन्य पार्टियां विभाजन का विरोध करती हैं।

(iii) जनजातीय क्षेत्र के बहुमत होने की मांग यह कहकर अस्वीकृत कर दी गई कि यह कुल जनसन्ख्या का केवल एक तिहाई हैा और आदिवासियों द्वारा बोली जाने वाली कई भाषाएँ हैं। इस प्रकार, यह एक अलग प्रश्न है जिस का केवल "बहुमत" के आधार पर निर्णय नहीं लिया जा सकता है।

(iv) दक्षिण बिहार के अलग होने से राज्य की पूरी अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा क्योंकि मैदानी क्षेत्र मुख्य रूप से कृषि हैं और झारखंड औद्योगिक संतुलन प्रदान करता है। इस प्रकार, इस क्षेत्र का नुकसान राज्य के बाकी हिस्सों द्वारा वहन नहीं किया जा सकता ।

(v) पृथक्करण अवशिष्ट अवस्था में कृषि और उद्योग के बीच संतुलन को बिगाड़ देगा विकास के लिए कम अवसरों और संसाधनों के साथ एक गरीब क्षेत्र होगा।

(vi) इसके अलावा, पटना विश्वविद्यालय और बिहार विश्वविद्यालय जैसी उच्च शिक्षा के केंद्र बाहर हैं, इसलिए इस दृष्टिकोण से अलगाव बहुत असुविधाजनक होगा।

इस से कई लोगों का मनोबल टूटा | 1963 में इस पार्टी के लोग कॉन्ग्रेस से मिल गये | मांग और कम होने लगी|

1973 में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन हुआ और नेता के रूप में शिबू सोरेन सामने आये - इस मोर्चा को गैर इसाई आदिवासियों का भी बहुत समर्थन मिला | इस पार्टी ने ऑल झरखंड स्टूडेंट्स यूनियन केसाथ फिर ये मांग रही और फिर इसे नकारा गया |

1996 में भारतीय जनता पार्टी -पहली गैर आदिवासी पार्टी हुई जिस ने अलग राज्य मुद्दे का समर्थन किया | सन 2000 में इसे क्लीन चिट   मिली .

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